“ये बलात्कार नहीं, सिडक्शन है,
रिझाना है कु****” “इस पत्रकार
को नज़रअंदाज करो, उसका नाम
बताता है कि वो वेटिकन सिटी से
आई है और शायद ये कॉलम लिखने के
लिए उसे चर्च से पैसा मिला हो.” पिछले शनिवार को जब हिन्दू
बिज़नेसलाइन में मेरा लेख छपा तो
सोशल मीडिया पर जो ज़हरीले कमेंट
आए उनमें से कुछ उदाहरण मैंने ऊपर दिए
हैं. ज़्यादातर इसीलिए नहीं लिख पा
रही हूँ, क्योंकि उनकी भाषा यहां
लिखना मर्यादा का उल्लंघन
होगा. ये लेख छपने तक तेलुगु ब्लॉकबस्टर
फ़िल्म ‘बाहुबली’ हिट घोषित हो
चुकी है. ये फ़िल्म तमिल में भी शूट हुई
थी. इसके अलावा कई भारतीय भाषाओं
में इसका डब संस्करण रिलीज़ किया
गया. यानी फ़िल्म के फैन्स को इस
लेख से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं
थी. फिर भी, मुझे मालूम था कि
नारीविरोधी मानसिकता वाले
लोग इसपर प्रतिक्रिया ज़रूर करेंगे
क्योंकि मैंने भारतीय फ़िल्मों में
यौन हिंसा को बहुत हल्के तरीके से
दिखाने के ख़िलाफ़ लिखा था. पढ़ें विस्तार से ताज़ा मामला ‘बाहुबली’ फ़िल्म के
एक सिक्वेंस का है जिसमें फ़िल्म का
हीरो, फ़िल्म की हिरोइन और
योद्धा अवंतिका के संग बार-बार
जबरदस्ती करता है, नाचते-गाते हुए
उसे छूता है, उसके ऊपरी कपड़े उतारता है और उसके विरोध के
बावजूद उसका चेहरे और कपड़ों को
बदल देता है. इसके कुछ ही पलों बाद अवंतिका का
हीरो पर दिल आ जाता है और दोनों
बाँहों में बाँहें डाले सो जाते हैं. नाच-
गाने के साथ किए गए बलात्कार के
इस रूपक से एक पुरानी धारणा को
बल मिला कि औरत का दिल ताक़त से ही जीता जा सकता है. अपने पुराने अनुभवों से मुझे पता था
कि इस सिक्वेंस की आलोचना करने
पर मेरे ख़िलाफ़ सेक्सिस्ट
(लिंगविरोधी) ज़हर उगला जाएगा. ‘बाहुबली’ एक हिंदू जवाब? लेकिन मैं ये बात नहीं समझ पाई थी
कि बहुत से दर्शक बाहुबली को
‘हिन्दू सफलता’ के रूप में या ‘दक्षिण
भारतीय/तेलुगु गर्व’ के रूप में देख रहे हैं. इसलिए मेरे लेख पर पिछले एक हफ़्ते से
लगातार तीखे कमेंट आ रहे हैं. ये कमेंट
करने वाले ज़्यादातर फ़िल्म के फैंस
और ऐसे कट्टरपंथी हिन्दू हैं जो इस
फ़िल्म को ‘मुस्लिम पीके’ का ‘हिन्दू
जवाब’ समझ रहे हैं. ‘मुस्लिम’ क्योंकि फ़िल्म के हीरो
आमिर ख़ान मुसलमान हैं. हिंदू
कट्टरपंथी बाहुबलि को ‘हिंदू
सफलता’ मान रहे हैं क्योंकि ये फिल्म
उनके हिसाब से हिंदू मिथकों पर
आधारित हैं. हालांकिपीके में धर्म की अवधारणा पर सवाल उठाए गए है
पर इनका मानना है कि इस फिल्म में
केवल हिन्दू धर्म की निंदा की गई है. बहरहाल जो है सो है. भारतीय
फ़िल्में दशकों से महिलाओं के
ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को बहुत
हल्के तरीके से दिखाती रही हैं. और
इस मामले में हिंदी सिनेमा किसी से
कम नहीं. पीछा करना, सकारात्मक कैसे इसी साल आई निर्देशक आनन्द एल
राय की फ़िल्म तनु वेड्स मनु रिटर्न्स
में पप्पी नामक एक किरदार एक
लड़की को उसकी शादी से उठा
लेता है क्योंकि लड़की के ना कहने के
बावजूद उसे यकीन है कि वो उसे प्यार करती है. फ़िल्म में पप्पी को एक प्यारे इंसान
के रूप में दिखाया गया है और उसकी
हरकतों को चुटकुले के तौर पर पेश
किया गया है. हमारी फ़िल्मों में हीरो लड़की से
प्रणय निवेदन के नाम पर पीछा करने,
बदतमीजी करने और दूसरी तरह की
यौन हिंसाओं का सहारा लेते हैं. आनन्द राय की ही फ़िल्म रांझणा में
हीरो हिरोइन का लगातार पीछा
करता है, दो बार अपनी हाथ की नसें
काट लेता है और एक बार वो ग़ुस्से में
स्कूटर पर साथ जा रही हिरोइन को
लेकर गाड़ी सहित नदी में कूद जाता है. हॉलीडे (2014) में हीरो विराट
बक्शी (अक्षय कुमार) हिरोइन
साइबा (सोनाक्षी सिन्हा) का न
केवल पीछा करता है बल्कि उसे
जबरदस्ती चूम भी लेता है. ‘हिंसा मजेदार’ किक (2014) में हीरो सलमान ख़ान
ढेर सारे पुरुष डांसरों के बीच नाचते
हुए जैकलीन फर्नांडीज़ की स्कर्ट
को अपने दांतों से उठाता है. आप देख सकते हैं कि बॉलीवुड की
नज़र में लड़कियों के संग की जाने
वाली ऐसी हिंसा क्यूट और मजेदार
है. यहाँ तक कि समझदार लगने वाले
इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक की
जब वी मेट (2007) और रॉकस्टार
(2011) जैसी फ़िल्मों में रेप को लेकर
चुटकुले गढ़े गए हैं. ऐसे फ़िल्मों की आलोचना करने पर
एक घिसापिटा जवाब ये मिलता है
कि फ़िल्मों में तो वही दिखाया
जाता है जो भारतीय समाज में
होता है. पिछले कुछ दिनों में मुझे जो अनुभव
मिला है उससे यही पता चलता है कि
फ़िल्म फैंस इस तरह की कड़वी
सच्चाई के महिमाकरण या उसका
प्रयोग करके मुनाफ़े कमाने के
ख़िलाफ़ उठाई गई आवाज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते. समर्थन भी मिला लेकिन ऐसे मुद्दे पर जब आप चुप्पी
तोड़ते हैं तो आपको पता चलता है
कि ऐसे बहुत से लोग हैं जो आपकी
राय से सहमत हैं लेकिन वो ख़ुद को
अकेला महसूस करते हैं क्योंकि उनके
आसपास किसी ने अपनी आवाज़ नहीं उठाई. इस हफ़्ते ‘बाहुबली’ के जितने फ़ैंस ने
मुझे गालियाँ दी उनसे कहीं ज़्यादा
ऐसे महिला और पुरुष मिले जिन्होंने
कहा, “भगवान का शुक्र है, तुमने ये लेख
लिखा. मुझे तो लग रहा था कि बस मैं
ही ऐसा सोचता हूँ.” ऐसे सभी लोगों से मेरा कहना है कि
न आप अकेले हैं और न ही मैं और हम
दोनों को ही अपनी आवाज़
उठानी चाहिए. (ऐना एमएम वेट्टिकाड ‘द एडवेंचर्स ऑफ़ एन इंट्रिपिड फ़िल्म क्रिटिक’ किताब की लेखिका हैं.)